Saturday, May 25, 2019

अरबपतियों से भी ज्यादा दान देते हैं आम लोग

अगर हम इंटरनेट खंगालें, जैसा 60 करोड़  भारतीय करते हैं, तो हमें कई बार एक दूसरे के बारे में बुरी और घृणित बातें करते लोग नजर आएंगे। अनजाने में अपने भीतर पनाह दिए हुए द्वेष और घृणास्पद भाषा में कई लोग इसका जवाब देते भी दिखाई देंगे।

शायद इसलिए क्योंकि हमें लगता है कि मुखौटे के पीछे रहकर बुरी बातें कहते हुए हम सुरक्षित हैं। हम एक झूठी पहचान, किसी उपनाम या फिर रूप बदली तस्वीर के पीछे रहते हैं और शक्तिशाली होने का दंभ महसूस करते हैं लेकिन बिना जिम्मेदारी लिए। शायद यह वक्त का एक पहर भर है, जो जल्दी से खत्म हो जाएगा। शायद तिरस्कार, जहर और नफरत सिर्फ लहरें हैं, जो सभ्यता के अथाह सागर की सतह पर हौले से हलचल पैदा कर देती हैं। उस सभ्यता पर जिसे हम भारत कहते हैं।

जिसकी गहराइयों में 5000 साल हैं, संचित ज्ञान, संयम और सहानुभूति है। संभव है कि सतह पर मौजूद हलचल समन्वयात्मक परंपरा को पहचानने में दिक्कतें पैदा करें। वह परपंराएं, जह्यं कई सारी संस्कृतियां आकर मिली हैं और जिससे आज का इंसान तैयार हुआ है। तो द्वेष और नफरत से भरे चुनावी मौसम के बाद आज बात निजी और राजनीतिक दुनिया में एक- दूसरे के साथ गाली-गलौज करने वाले को लेकर नहीं, आज बात होगी मैत्री, करूणा और मुदिता यानी सहृदयता की।

वात अनजानों के साथ नेकी की। हाल ही में बिल एंड मेलिंडा गेट्स फाउंडेशन के साथ मैंने भारत में हर दिन दान को लेकर एक रिसर्च रिपोर्ट तैयार की है। पता चला है कि हमारे देश में सालभर (2017) में आम लोगों ने 34 हजार करोड़ रुपए दान दिए हैं।
 यह दान धार्मिक संस्थानों, समुदायों और आपदा के बाद सहायता के लिए दिया गया है। यह देश के सभी अरबपतियों के दिए दान और केंद्र सरकार की किसी महत्वपूर्ण स्कीम के सालाना बजट से भी ज्यादा है। अनजानों को मदद के विचार का अपना गहरा दार्शनिक अर्थ है। यह मानवता की वह सोच है। जो हर धर्म और जनजाति से भी परे है। यह सर्वव्यापी, मोक्ष पाने से जड़ा ऐसा विचार है जो आम लोगों को प्रयत्न करने की सहूलियत देता है।

जैसे कि यह कुदरती है कि हम अपने पैसे और समय उन लोगों को दें जिन्हें हम जानते हैं, जिनपर भरोसा करते हैं या जो हमारी ही तरह हैं।
वैसा ही कुछ हमारे भीतर अंतर्निहित है कि हम मुश्किल में फसे अनजानों की मदद के लिए भी हमदर्दी रखते हैं। हम संवेदनशील सेते हैं तो उस अनजान व्यक्ति की जगह खुद को देखने लगते हैं। और जिस सहानुभूति की अपेक्षा हमें खुद के लिए होती है हम उसी तरह से व्यवहार करते हैं। लंगर, सेवा, जकात जैस हमारी परंपराएं करोड़ों लोगों के लिए मदान को संभव करने का जरिया बनती हैं। कई परिवारों में घर के बाहर वहां से गुजरने वाले यात्रियों के लिए पानी का मटका भरकर रखने की परिपाटी चली आ रही है। हम सभी ने ऑटो वाले के कीमती सामान लौटाने की कहानियां पढ़ी हैं।

से चमक उठता है। हम संतुष्टि का अनुभव करते हैं, हम जुड़ाव महसूस करते हैं। हावर्ड बिजनेस स्कूल के प्रोफेसर माइकल नॉर्टन ने यूएस से युगांडा तक 130 देशों के डेटा पर रिसर्च किया है। इससे पता चला कि जो लोग दूसरों पर खर्च करते हैं वो उन लोगों से कहीं ज्यादा खुश रहते हैं जो कमाई का मोटा हिस्सा खुद पर लुटा देते हैं।

 यही वजह है कि जॉय ऑफ गिविंग पूरी दुनिया में एक सी अनुभूति है। ऐसी खासियत जो मानव स्वभाव के केंद्र में मौजूद है, फिर चाहे वह किसी भी संस्कृति का हिस्सा हो। नॉर्टन कहते हैं कि जैसे हम सब धी-शक्कर के आदतन हैं वैसे ही हम सबके भीतर दूसरों की मदद का आकर्षण होता है। सौभाग्य से हमारी रिसर्च रिपोर्ट बताती है कि इस सदी के युवा हर रोज दान देने को लेकर ज्यादा उत्सुक रहते हैं।

आमने-सामने मिलकर मार्केटिंग हो या फिर ऑनलाइन क्राउडफंडिंग, छोटी-छोटी मदद वाले ये तरीके हर साल 20-30% बढ़ रहे हैं। तो सही समय आ गया है जब हर रोज देने की प्रवृत्ति को बढ़ावा दिया जाए। भारत का भूगोल उसे बदलते मौसमों वाले क्षेत्र में खड़ा करता है। हम नहीं जानते कब, किस तरह की प्राकृतिक आपदाएं बढ़ जाएगी। साथ ही हमारे यहां बड़ी संख्या में युवा और वेसत्र जनसंख्या है जो आर्थिक असुरक्षा झेल रही हैं।

आपदाओं से पैदा होने वाली दिक्कतों से उबरने के लिए मदद और सहयोग की तैयारी हमेशा रखनी होगी। गैर-परिचितों की मदद उसमें सबसे अहम है। और हमारी रिपोर्ट भी यह्म साबित कर रही है कि हमारे देश में ये परंपरा आबाद है। तो भला इससे बेहतर कौन-सा वक्त होगा भारत की शाश्वत स्नेहपूर्ण धड़कनों को सुनने-सुनाने का?

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