Friday, May 24, 2019

भाजपा की इस बंपर जीत से भारत की जातिवादी राजनीति की राह मुश्किल

मोदी और अमित शाह ने एक बार फिर इसे कर दिखाया। इन दोनों ने एकतरफा जीत से न केवल कांग्रेस को जबरदस्त झटका दिया, बल्कि जातिवादी राजनीति करने वाले दलों के भविष्य पर भी सवाल खड़े कर दिए। साथ ही भाजपा ने पूर्वी भारत में.बीबीसी के पूर्व पहली बार शानदार उपस्थिति दर्ज कराई और 2019 की इस लहर का अहसास दक्षिण में भी कराया।

 यह चुनाव मोदी के नाम पर लड़ा गया, लेकिन प्रचार के पीछे शाह का ही दिमाग रह्य। परिणाम बताते हैं कि सरकार केपांच सालों के विकास रिकॉर्ड पर आधारित पार्टी के मूल अभियान नामुमकिन अब मुमकिन है, को बालाकोट एयर स्ट्राइक पर आधारित कट्टर हिंदू राष्ट्रवाद पर ले जाना सही फैसला रहा। शुरू से लेकर आखिर तक और प्रचार खत्म होने की रात केदारनाथ की गुफा में बिताकर मोदी ने राष्ट्रवाद में हिंदू तत्व को बनाए रखा। यद्यपि, वह वहां साधना के लिए लिए गए थे, लेकिन उन्होंने भगवा वस्त्रों में गुफा के सामने बैठकर फोटो खिंचवाया।

इस तरह से मोदी ने उस परंपरा को तोड़ दिया, जिसके तहत उनकी पार्टी खुलकर हिंदुत्व के नाम पर वोट मांगने से परहेज करती थी। कांग्रेस के खराब प्रदर्शन से एक बार फिर राहुल के नेतृत्व पर सवाल उठेगा। हालांकि, उन्होंने अपनी पार्टी के लिए काफी मेहनत की, लेकिन एक वक्ता केतौर पर उनका मोदी से कोई मुकाबला नहीं है। गठबंधन पर उन्होंने जो फैसले लिए उससे पार्टी को फायदे की जगह नुकसान ही हुआ। निश्चित तौर पर अगर कांग्रेस और आम आदमी पार्टी दिल्ली में मिलकर लड़ते तो भाजपा को यहां पर वॉकओवर नहीं मिलता। अनेक बार प्रत्याशियों के नाम भी अंतिम क्षणों में घोषित किए गए।

प्रियंका का अचानक ही पार्टी का महासचिव बनना भी कांग्रेस को कुछ नहीं दिला सका और वह अपने भाई राहुल की अमेठी में हर को भी नहीं टाल सकीं। इससे एक बार फिर साफ हो गया कि अब नेहरू-गांधी वंश पहले की तरह वोट खींचने वाला नहीं रहा। पर, यह परिवार कांग्रेस को आज भी एक रखने में सक्षम है। इसलिए प्रियंका के कई बार मना करने के बावजूद एक बार फिर उन्हें पार्टी की कमान सौंपने की मांग उठना लगभग तय है। प्रचार के दौरान राजनीति के पंडितों का कहना था कि भाजपा अपने पिछली बार के प्रदर्शन से पीछे रहेगी और उत्तर प्रदेश में होने वाले नुकसान को उसे ओडिशा व पश्चिम बंगाल से पूरा करना होगा। लेकिन, भाजपा का उत्तर प्रदेश में प्रदर्शन भी बहुत खराब नहीं रहा

और पार्टी ने पूर्वी राज्यों में अपनी शानदार मौजूदगी भी दर्ज करा दी।  बसपा-सपा गठबंधन के निराशाजनक प्रदर्शन ने जाति आधारित राजनीति के भविष्य पर भी सवाल खड़े कर दिए। अगर जाति का गणित देखें तो यह गठबंधन यूपी में भाजपा को पीछे धकेलने में सक्षम था, लेकिन अब लगता है कि मोदी के राष्ट्रवाद ने ऐसी लहर पैदा की, जिसने युवाओं को वोट डालते समय उनकी जाति भूलने को विवशकर दिया। बंगाल में अमित शाह व ममता बनर्जी के बीच लड़ाई काफी कड़वाहट भरी हो गई थी। शाह पिछले पांच सालों से कहरहे थे कि वे बंगाल में भाजपा को दृढ़ता से स्थापित करेंगे। स्पष्ट है। कि भाजपा को उसके काम का फायदा मिला। ममता की पार्टी का सफाया तो नहीं हुआ, लेकिन उनकी सर्वोच्चता को चुनौती तो मिल ही गई।

ऐसा ही ओडिशा के बारे में भी कह्म जा सकता है, जहां पर भाजपा आगे तो बढ़ी पर इतना नहीं कि वह नवीन पटनायक को कुर्सी से उतार सके। लेकिन जब कभी ममता या पटनायक हटेंगे तो मैदान भाजपा को खुला मिलेगा और कांग्रेस उस खाली जगह को भरने की स्थिति में नहीं है। दक्षिण के दो राज्यों में भी इस बार मोदी लहर का असर रहा है। कर्नाटक में जिस बुरी तरह सेकांग्रेस-जद-एस गठबंधन हारा है उसने चौंकाया है। इसके अलावा हैदराबाद और उसके आसपास भाजपा का प्रभाव दिखा है।

 तमिलनाडु में भाजपा कुछ खास नहीं कर सकी और संभवतः उससे साथी चुनने में भी चूक से गई। 2019 में भाजपा ने साबित कर दिया है कि हिन्दुत्व के एजेंडे के साथ एक राष्ट्रीय पार्टी होने की वह से अकेली दावेदार है और कांग्रेस कहीं से भी एक बार फिर राष्ट्रीय पार्टी के तौर पर खुद को स्थापित करते ए नजर नहीं आ रही है।

जातिवादी पार्टियों और राजनीति के भविष्य पर संदेह है, पूर्व में भाजपा के प्रतिद्वंद्वियों का भविष्य भी तय नहीं है, ऐसे में पीएम मोदी के सामने तात्कालिक चुनौती यह है कि वे हिन्दुत्व की इस जीत को विजयोन्माद में बदलने से रोकें।

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