Wednesday, May 29, 2019

मोदी के नए अवतार से शुरू राजनीति में नया दौर

नरेन्द्र मोदी भारत के ऐसे पहले प्रधानमंत्री में हैं, जो गैर-कांग्रेसी हैं, लेकिन जिन्हें लगातार दो पूरी अवधियां  मिली हैं। ऐसी दो पूर्ण अवधियां अटलजी को भी नहीं     मिलीं। मोदी इस अर्थ में जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गांधी.  और मनमोहन सिंह की श्रेणी में आ गए हैं। यह ठीक है कि नेहरू, इंदिरा और राजीव गांधी को जितनी सीटें संसद में मिलीं, उतनी मोदी को नहीं मिलीं, लेकिन 300 का आंकड़ा पार करना किसी विपक्षी प्रधानमंत्री के लिए अपने आप में ऐतिहासिक उपलब्धि है।

 इसका श्रेय बालाकोट हमले, किसानों और गरीबों को मिली वित्तीय सुविधाओं, सरकार    के कुछ  जन-अभियानों और भाजपा कार्यकर्ताओं के व्यवस्थित जन-संपर्क को दिया जा रह्म है, लेकिन इस तरह के कई लोक-कल्याणकारी काम तो हर प्रकार करती है है। मोदी की इस अप्रत्याशित विजय के जो कारण मुझे समझ में आते हैं, वे ये है। एक, 2019 के चुनाव में पूरा विपक्ष ऐसा लग रह्म था, जैसे वह बिना दूल्हे की बारात हो। विपक्ष में   नेता तो कई थे, लेकिन वे सब प्रांतीय थे। उनमें से कई मोदी  से कहीं अधिक वरिष्ठ और अनुभवी भी थे, लेकिन उनमें प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार कोई भी नहीं था  जनता  अपनी वरमाला किसे पहनाती?

कितनों को पहनाती दो, यह चुनाव ही नहीं, सभी चुनाव कहने के लिएसंसदीय होते हैं, लेकिन उनका स्वरूप अध्यक्षात्मक होता है अमेरिका के राष्ट्रपति के चुनाव की तरह! यह चुनाव तो पूरी तरह से अध्यक्षात्मक था यानी मतदाता ने वोट डालते वक्त अपने इलाके के उम्मीदवार पर नहीं  बल्कि उसकी पार्टी के नेता पर नजर रखी। ऐसे नेता सिर्फ दो से थे।
एक नरेन्द्र मोदी और दूसरे राहुल गांधी।दोनों में कोई तुलना थी क्याराहल तो अपने प्रांत में हो अपनी पार्टी और खुद को ले वैठे। अखिल भारतीय नेता  होना तो दूर की कौड़ी है। तीन, ये चुनाव संसद का था, विधानसभाओं का नहीं। इसीलिए प्रांतीय नेताओं की श्रेष्ठता और योग्यता अपने आप दरकिनार हो गई। लोग सोचते थे कि प्रांतीय पार्टी को वोट देकर हम अपना वोट बेकार क्यों करें ? ओडिशा में क्या हुआ? विधानसभा में नवीन पटनायक और लोकसभा में लोगों ने मोदी को चुना।

राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के चुनावों में कांग्रेस को सत्तारूढ़ कराने वाली जनता ने इस संसदीय चुनाव में उसे बुरी तरह से रद्द क्यों कर दिया? चार, भारत मूलतः मूर्तिपूजक देश है। भाजपा के पास  नरेन्द्र मोदी नामक भव्य भूर्ति थी। वह सगुण, साकार, मुखर, बोलती-चालती मूर्ति थी। उसे विपक्ष के नेता संकीर्ण, साम्प्रदायिक, मौत का सौदागर, चोर, घमंडीआदि चाहे जो कहें लेकिन विपक्ष के पास क्या था?

एक निर्गुण, निराकार, तुतलाता-हकलाता विकल्प था देश क्या करता  मजबूरी का नाम नरेन्द्र मोदी! मोदी की टक्कर में यदि एक भी अखिल भारतीय नेता होता तो भाजपा को लेने के देने पड़ जाते। राजीव गांधी को 400 से ज्यादा सीटें मिली थीं, लेकिन विश्वनाथ प्रतापसिंह जैसे नेता ने उन्हें 200 पर उतार दिया। पांच, इस चुनाव- अभियान में मोदी का सबसे ज्यादा फायदा राहुल गांधी ने उस पर कठोर अंकुश भी लगा सकेंगी। किसी भी स्वस्थ लोकतंत्र के लिए सक्ल विपक्ष नितांत आवश्यक है।

जहां  तक मोदी के तानाशाह बनने का अंदेशा है,उसका निराकरण तो संसद के सेंट्रल हॉल में दिए  गए उनके अदभुत भाषण  से ही हो जाता है। उन्होंने अपने पाटी-कार्यकर्ताओं के लिए जितने सम्मान और ने विनम्रता के शब्द कहे, मेरी याद में किसी भी प्रधानमंत्री  ने नहीं कहे। उन्होंने आडवाणीजी और जोशीजी के पांव छूकर अपनी अहंवादी छवि को सुधार लिया। पेड़ पर ज्यों ही फल लगते हैं, वह झुक जाता है। उन्होंने  अल्पसंख्यकों के भले की बात करके सच्चे हिंदुत्व   को प्रतिपादित किया। उन्होंने प्रज्ञा का नाम लिए बिना अपने  सांसदों को जुबान पर लगाम रखने के लिए भी की। मुझे ऐसा लगा कि मोदी का यह नया अवतार है।

उन्होंने केंद्र और प्रांतों की आकांक्षाओं में समरसता  स्थापित करने और क्रोिधियों को भी अपना' कहके  वास्तविक लोकतांत्रिक मानसिकता   का परिचय दिया। उन्होंने 'गांधी, लोहिया, दीनदयाल' के विचारों की याद दिलाई और 1857 के आदशों को दोहराया। 1942 और 1947 के बीच ह्या जन-जागरण और जन-आंदोलनों की तरह अगले पांच साल भारत की जनता को जगाने का संकल्प भी यह विश्वास बंधाता है कि अब देश  में एक नई राजनीति का जन्म हो रहा है।

पिछली बार  उनकी विजय का मूल कारण वे स्वयं नहीं, कांग्रेस का भ्रष्टाचार था। इस बार उन्हें जो विजय मिली है, वह  अपने दम पर मिली है। आशा है कि मोदी अब अपनी  कथनी को करनी में बदलेंगे। वे अत्यंत सफल प्रचार में मंत्री सिद्ध हुए हैं, लेकिन अब वे मान प्रधानमंत्री सिद्ध  होकर दिखाएंगे। 

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