Wednesday, May 15, 2019

श्रीलंका हमले के बाद आईएस का कितना खतरा

श्रीलंका में आत्मवती बम विस्फोटों ने उस देश के साथ दुनिया को चकित कर दिया। ये हमले तब हुए हैं जब इस्लामिक स्टेट (आईएस) को उसके सीरियाई क्षेत्रों में पराजित मान लिया गया है। जाहिर है यह जमीनी प्रभुत्व तो खो चुका है पर इस्का नेटक्कं और प्रभाव शेष है ताकि वह अपने खिलाफत के बाहर किसी वारदात को अंजाम दे सके। इसके सहयोगी गट अल शबाव और बोको हरम की मौजूदगी वाले सोमालिया व नाइजीरिया में आतंकी गतिविधियों में तेजी की अपेक्षा थी पर ऐसा हुआ नहीं। अबु साफ गुट से सांठगांठ कर फिलिपीन्स में पैर जमाने में भी इसे सफलता नहीं मिली। अफगानिस्तान के शाति इलाकों में तालिबान की कड़ इतनी मजबूत है कि वहां आईएस के लिए गुंजाइश नहीं है पाकिस्तान में अलग-अलग कई गुट हैं पर वे किसी के गुर्गे बनने को तैयार नहीं हैं। संभव है कि यह सब सोचकर आएस प्रासंगिक बने रहने के लिए नई इलाकों की तलाश में हो। इसको नेटवर्क आधारित मौजूदगी दुनिया के उन हिस्सों के लिए तो खतरा है ही जहां लोगों को फुसलए जाने का जोखिम हो। वह ऐसे इलाके खोज रहा है, जहां खुफिया नेटवर्क कमजोर हो और पर्याप्त गोपनीय ढांचे के साथ अचानक वारदात की जा सके। कई लोग मानते होंगे कि आईएसके उभार के लिए भारत में गुंजाइश नहीं है, क्योंकि चार साल पहले जब आईएस चरम पर था तब भी भारत के 18 करोड़ मुस्लिमों का बहुत छोटा-सा हिस्सा आईएस की खिलाफत में जाकर उसका हिस्सा बना। जो गए भी उनमें काफी कम वौद्धिक व संधर्ष क्षमता थी। मुंबई के 26/11 हमले के बाद मोटेतौर पर बेदाग रिकॉर्ड वाले अनुभवी भारतीय खुफिया एजेंसियों की मौजूदगी ने भी ऐसी धारणा बनाई होगी। हालांकि, आईएस की सूची में ऐसा इलाका या राष्ट्र हो सकता है, जहां मुस्लिमों के पर्याप्त आधार के साथ लोकतांत्रिक व धर्मनिरपेक्ष सिद्धांतों का अस्तित्व हो। इस दृष्टि से भारत का जोखिम बढ़ जाता है। श्रीलंका शुरुआती बिंदु हो सकता है, जहां मुस्लिमों की बहुत छोटी अस्पसंख्यक मौजूदगी है।
जलं तमिलनाडु स्थित तौहीद जमात (टीएनटीजे) ने श्रीलंका में वारदात करने वाले नेशनल तौहीद जमात से कोई संबंध होने से सख्त इनकार किया है पर इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता हैं
 जैसे  अतिवादी-कट्टरपंथी विचारधारा इंटरनेट व मौखिक प्रचार से ऐसे अतिवादी तत्वों को प्रभावित करें, जो जरूरी नहीं आईएस के इलाके से से लौटे सें। श्रीलंका में जांच में मौखिक प्रचार से बने नेटवर्क का पता चला है, हालांकि दावे के बावजूद अहएस का संबंध पूरी तरह स्थापित नहीं हुआ है। यदि आईएस संभावित ठिकानों की खोज में है तो पूरे भारत में ऐसे पर्याप्त स्थान है,क्योंकि मुस्लिम किसी एक राज्य में सीमित नहीं हैं।केवल मुस्लिमों की मौजूदगी आतंकवाद को जड़े जमाने का आमंत्रण नहीं हो सकता। ऐसा मानना उतना ही बुरा है, जितना सारे मुस्लिमों पर संभावित आतंकियों का लेबल लगाना। कट्टरपंथी वे तत्व होते हैं, जो मानते हैं

कि उनकी ही विचारधारा को मौजूद रहने का हक है और
वे अन्य सारे लोगों को उनकी आस्था में बदलने के लिए हिंसा का सहारा लेने को भी तैयार रहते हैं। पाकिस्तान में एक आत्मघाती हमलावर से जब पकड़े जाने के बाद पूछा गया कि उसने उन लोगों को क्यों मारा जो मुस्लिम ही थे, तो उसका कहना था कि वे सच्चे मुस्लिम नहीं थे, क्योकि सच्चे मुस्लिम वहीं हैं जो मजहब का वैसा पालन करते हैं जैसा वह व उसके साथी करते हैं। यह्न आईएस की कट्टर किस्म है, जिससे दुनिया लड़ रही है। कई लोग सोचते हैं भारत अपनी बहुलता की ताकत के कारण आईएस से बच निकला। जहां यह बात सही है और खुफिया एजेंसियों ने भी मोटेतौर पर पाकिस्तान व अंतरराष्ट्रीय अपराधिक गुटों द्वारा स्थापित कट्टरपंथी गुटों को अलग-थलग कर थिये पर डाल दिया है पर भारत खतरे से बाहर नहीं है और श्रीलंका में हुए हमले इसे साबित करते हैं। वास्तव में भारतीय मुस्लिम अलग किस्म के हैं। उन्हें हर धर्म के लोगों के साथ काम करने और खान-पान साझा करने का मौका मिलता है।ऐसे शहर भी हैं जहां जब दोनों धर्मों के त्योहार साथ आते हैं तो हिंदू-मुस्लिम साथ बैठकर धार्मिक जुलूसों के निकलने के रूट व टाइमिंग तय करते हैं। ऐसा.अंतरधार्मिक सौहार्द दुनिया में कीं मिलना दुर्लभ है।लेकिन, फिर भी दोनों तरफ ऐसे तत्व है, जो शांति से नहीं बैठ सकते। आईएस जैसे गुट इन दोनों तत्वों द्वारा परस्पर भय फैलाने से निर्मित विभाजन पर फलता-फूलता है। विभाजन की राजनीति हमेशा मजबुत से मजूबत समाजों खासतौर पर लोकतंत्रों में मौजूद रही है। मजबूत समाज इसे थोड़े-बहुत झटकों के साथ काबू   कर लेते हैं जैसा भारत अभी अनुभव कर रहा है। 

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